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- कल की कल सोचेंगे
- शायरी और हीरा
- असहायों की सेवा
- मुक्ति की परवाह नहीं
- ईश्वर हमारे अंदर है
- विनम्रता ही असली गुण है
- इस लोक में सदाचार
- मोको कहाँ तू ढूँढ़े
- ईश्वर को जान लिया
- मुक्ति के सोपान
- भाग्य का फल
कल की कल सोचेंगे – Story in Hindi with Moral PDF
सेठ जमनालाल बजाज ने संकल्प लिया था कि वे आजीवन स्वदेशी वस्तुओं का ही उपयोग करेंगे। उनकी प्रतिज्ञा यह भी थी कि वे प्रतिदिन किसी-न-किसी संत महात्मा या विद्वान् का सत्संग करेंगे ।
एक दिन वे एक संत का सत्संग करने पहुँचे। बातचीत के दौरान उन्होंने कहा, ‘महाराज, आप जैसे संतों के आशीर्वाद से मैंने अपने जीवन में आय के इतने साधन अर्जित कर लिए हैं कि मेरी सात पीढ़ियों को कमाने की चिंता नहीं करनी पड़ेगी । आठवीं पीढ़ी की कभी-कभी मुझे चिंता होती है कि उसके भाग्य में पता नहीं क्या होगा ?”
संतजी ने कहा, ‘सेठजी, आठवीं पीढ़ी की चिंता आप न करें। कल सवेरे आप यहाँ आ जाएँ। आपकी सभी चिंताओं का समाधान हो जाएगा।’
सेठ जमनालाल बजाज सुबह-सुबह उनकी कुटिया पर जा पहुँचे। संत ने कहा, ‘सेठजी, गाँव के मंदिर के पास झाडू बनाने वाला एक गरीब परिवार झोंपड़पट्टी में रहता है। पहले आप उसे एक दिन के भोजन के लिए दाल- आटा दे आओ। उसके बाद मैं आपको वह युक्ति बताऊँगा।’
सेठ जमनालाल आटा-दाल लेकर उस झोंपड़ी पर पहुँचे। दरवाजे पर आवाज देते ही एक वृद्धा निकलकर बाहर आई । सेठजी ने उसे लाया हुआ खाद्यान्न थमाया, तो वह बोली, ‘बेटा, इसे वापस ले जा । आज का दाना पानी तो आ गया है। ‘
जमनालालजी ने कहा, ‘तो कल के लिए इसे रख लो।’ वृद्धा बोली, ‘जब ईश्वर ने आज का इंतजाम कर दिया है, तो कल का भी वह अवश्य करेगा। आप इसे किसी जरूरतमंद को दे देना।’
वृद्धा के शब्द सुनकर सेठ जमनालाल बजाज पानी-पानी हो गए। उन्होंने विरक्ति और त्याग की मूर्ति उस वृद्धा के चरण छूकर आशीर्वाद माँगा और वापस हो गए । इस घटना के बाद वे स्वयं कहा करते थे, ‘कर्म करते रहो, ईश्वर की कृपा से आवश्यकताओं की पूर्ति स्वतः होती रहेगी।’
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शायरी और हीरा – Story in Hindi with Moral PDF
शेख सादी स्वाभिमानी और नेकदिल इनसान थे। जाने माने शायर होने के नाते बड़े-बड़े विद्वान् उनके सत्संग के लिए लालायित रहा करते थे । भौतिक सुख-संपदा को वे आत्मिक आनंद में बाधा मानते थे, इसलिए उनका जीवन सरलता और सात्त्विकता से भरा हुआ था ।
बादशाह शेख सादी की शायरी के दीवाने थे। एक दिन वे शेख सादी के निवास स्थान पर गए। वे अपने साथ एक बेशकीमती हीरा उपहारस्वरूप ले गए। उनकी सादगी देखकर सुलतान के मुँह से निकल गया, ‘आपकी तंगहाली देखकर मैं अपने आपको बहुत दुःखी महसूस करता हूँ।
आपको भेंट करने के लिए मैं अपने साथ यह नायाब हीरा लाया हूँ। इसे बेचकर आप अपनी तंगहाली दूर कर सकते हैं। ‘
बादशाह के इन शब्दों को सुनते ही शेख सादी ने कहा, ‘सुलतान, यह आपका भ्रम है कि हीरा किसी समस्या का समाधान कर सकता है। बल्कि सच्चाई यह है कि धन संपत्ति समाज में नई-नई समस्याएँ ही पैदा करते हैं। इनसे परिवार और समाज में दरार पैदा होती है | शायरी सुनकर लोग प्रेम की प्रेरणा लेते हैं, जबकि हीरा तो ईर्ष्या-द्वेष ही पैदा करता है । ‘
शेख सादी सुलतान को लेकर एक शायरी समारोह में गए। उनकी शायरी सुनने के लिए वहाँ हजारों लोग मौजूद थे। देखते-ही-देखते उन्होंने सुलतान द्वारा दिए गए हीरे को अचानक भीड़ के बीच उछाल दिया, फिर क्या था! वह हीरा पाने के लिए लोग एक-दूसरे पर झपटने लगे। उस धक्का- -मुक्की में कई लोग घायल हो गए। यह देखकर सुलतान समझ गए कि शायरी की तुलना हीरे से करना उनकी मूर्खता ही था ।
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असहायों की सेवा – Story in Hindi with Moral PDF
परम विरक्त संत स्वामी रामसुखदासजी कहा करते थे कि जो व्यक्ति मान-अपमान की भावना त्यागकर भगवान् की शरणागत हो जाता है, उसे किसी भी अभाव की अनुभूति नहीं हो सकती ।
एक साधक ने स्वामीजी से प्रश्न किया, ‘मैं रोजी-रोटी के साधन जुटाने में इतना व्यस्त रहता हूँ कि भक्ति-उपासना नहीं कर पाता । मेरा कल्याण कैसे होगा?’ स्वामीजी ने कहा,
‘आप चार संकल्प लें किसी का जी न दुखाएँ, यथासंभव असहाय और रोगियों की सेवा करें, सत्य बोलें और सवेरे शैया त्यागने के समय और रात्रि में सोते समय भगवान् को स्मरण करें। कपट, चालाकी और छल से दूर रहें। भगवान् स्वतः कृपा दृष्टि करेंगे।’
कुछ क्षण रुककर उन्होंने कहा, ‘भगवान् के प्रति शरणागति नींद की तरह सुगम है। जैसे नींद के लिए कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता, उसी तरह शरणागत होने के लिए कोई परिश्रम नहीं करना पड़ता ।
वास्तव में भगवान् ने सबको अपना स्वीकार कर रखा है, किंतु हम अपनी असीमित इच्छाओं के लालच में पड़कर झूठ, कपट आ की शरणागत हो जाते हैं और यह कहने लगते हैं कि संसार के काम के लिए बिना झूठ-कपट के सफलता नहीं मिलेगी। यह भ्रम ही हमारे पतन का कारण बनता है।
छली – कपटी और दुराचारी को भगवान् कदापि सहन नहीं करते, जबकि निर्मल हृदय वाले, सदाचारी भक्त भगवान् की कृपा के स्वतः पात्र बन जाते हैं।’
स्वामी रामसुखदासजी स्वयं ऐसे दिव्य संत थे, जिन्होंने कभी पैसे का स्पर्श नहीं किया, कोई शिष्य नहीं बनाया, कोई आश्रम नहीं बनाया। उन्होंने अपना चित्र तक नहीं बनने दिया।
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मुक्ति की परवाह नहीं – Story in Hindi with Moral PDF
स्वामीविवेकानंद के धर्म संबंधी क्रांतिकारी विचारों से अमेरिका की युवा पीढ़ी बहुत प्रभावित थी । वहाँ के अनेक विश्वविद्यालयों में उनके प्रवचनों का आयोजन किया गया।
एक दिन एक विश्वविद्यालय के युवा छात्र उनसे मिलने आए किसी ने प्रश्न किया, ‘आप धर्मपरायण कहे जाने वाले भारत के संन्यासी हैं। आपकी दृष्टि में धर्म या भगवान् की उपासना का सार क्या है?’
स्वामीजी ने उत्तर दिया, ‘मेरे सनातन धर्म में सदाचार और सेवा- परोपकार को सर्वोपरि धर्म बताया गया है। जिसका अंतःकरण पवित्र व शुद्ध है और जो दूसरे व्यक्ति के दुःख को देखकर द्रवित हो जाता है,
वही सच्चा धर्मात्मा है। जो गरीबों, पीडितों, असहायों और बीमारों में अपने इष्टदेव की छवि के दर्शन करता है, समझ लो कि उसे भगवान् का साक्षात्कार होने लगा है। ‘
स्वामीजी ने एक बार सत्संग में कहा, ‘सत्य का आचरण) ही मनुष्य को निर्भय बनाता है। निर्भीक व्यक्ति स्वार्थ हमेशा विमुख रहता है। सत्य पर अटल रहनेवाला इनसान कभी जीवन में निराश नहीं होता।
वह किसी के साथ छल-कपट की सोच भी नहीं सकता। यदि हृदय में छल कपट हो, तो चाहे सभी तीर्थों का भ्रमण उसने किया हो और कितने ही यज्ञ किए हों – सब व्यर्थ हैं। ‘
स्वामी विवेकानंदजी ने लिखा, ‘धर्म मतवाद या बौद्धिक तर्क में नहीं है, वरन् आत्मा के ब्रह्म स्वरूप को जान लेने और उसके अनुरूप होने में है। मुझे मुक्ति या भक्ति परवाह नहीं है। मैं जीवन के अंतिम क्षणों तक दूसरों की सेवा करता रहूँ — यही हमेशा माँ काली से प्रार्थना करता हूँ।’
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ईश्वर हमारे अंदर है – Story in Hindi with Moral PDF
एक बार महर्षि रमण से किसी जिज्ञासु ने प्रश्न किया, ‘क्या ईश्वर का साक्षात्कार किया जा सकता है?’ महर्षि ने उत्तर दिया, ‘क्यों नहीं किया जा सकता ? ईश्वर तो हमारे अंदर ही विद्यमान है। उसका दर्शन चक्षुओं से नहीं, हृदय से किया जा सकता है। ‘
रमण उपनिषद् का उद्धरण देते हुए बताते हैं, ‘जैसे तिल में से तेल, दही बने दूध से घृत, स्रोत में से जल और अरणी में से अग्नि की प्राप्ति होती है, वैसे ही ईश्वर आत्मा, सत्य और तप से प्राप्त किया जा सकता है।
यह विश्वकर्मा, महान् आत्मारूपी ईश्वर मनुष्यों के हृदय में सदैव वास करता है। वह ध्यान द्वारा मन के संयम, हृदय और बुद्धि से जाना जाता है। इंद्रिय संयम मन की पवित्रता का साधन है और ब्रह्म पवित्र हृदय की ओर ही आकर्षित होता है। जिस मन व हृदय को नाना प्रकार के विकार मलिन किए हुए हैं वहाँ ब्रह्म रह ही नहीं सकता।’
उपनिषद्कार कहते हैं, ‘अजर, अमर आत्मा के समान ही ईश्वर क्षयात्मक प्रकृति का भी समान शास्ता (शासन करने वाला) है। मनुष्य आत्मा के ज्ञान से समस्त सांसारिक अज्ञानों से मुक्त हो जाता है।’
सब प्राणियों में निहित ईश्वर एक है। वह सर्वव्यापी है और सब प्राणियों के भीतर अंतरात्मा के रूप में विद्यमान है । वह कण-कण में व्याप्त है। वह साक्षी व चैतन्य है। वह केवल रूप है और निर्गुण है। व
ह शांत है, निर्बाध और निरंतर है। वह परम सेतु है, जो अग्नि के समान सबको आत्मसात करता हुआ अमृत की ओर ले जाता है। अतः घट-घट में विद्यमान ईश्वर का साक्षात्कार हृदय से करना चाहिए ।
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विनम्रता ही असली गुण है – Story in Hindi with Moral PDF
विख्यात दार्शनिक बेंजामिन फ्रेंकलिन ने सभी धर्म संप्रदायों की बारह श्रेष्ठ चीजों, जैसे अहिंसा, सत्य, सद्भाव, मौन आदि का चयन कर जीवन में उनका पालन करने का संकल्प ले लिया।
वे प्रतिदिन आकलन करते थे कि क्या उस दिन उन सद्गुणों का पालन किया गया? कुछ ही दिनों में वह अहंकारग्रस्त होकर सोचने लगे कि शायद ही कोई इतने नियमों का पालन करता होगा ।
एक दिन उन्हें एक संत मिले। वे हर क्षण ईश्वर की याद में खोए रहते थे। वे परम विरक्त थे और सांसारिक सुख सुविधाओं की उन्हें लेशमात्र भी चाह नहीं थी । फ्रेंकलिन उन संत के प्रति अनन्य श्रद्धा भावना रखते थे।
संत से लंबे अरसे बाद उनकी भेंट हुई थी । संत ने पूछा, ‘वत्स, क्या तुम तमाम समय अध्ययन, उपदेश और लेखन में ही व्यस्त रहते हो या कभी-कभी उसे भी याद करते हो, जिसने तुम्हें इस संसार में भेजा है?’
फ्रेंकलिन ने गर्व से कहा, ‘महात्मन्, मैं बारह नियम व्रतों की साधना कर चुका हूँ। उनका दृढ़ता से पालन कर रहा हूँ। मैं शपथपूर्वक कह सकता हूँ कि शायद ही किसी ने इतने नियमों का पालन व्रत लिया हो।’
संत समझ गए कि इस दार्शनिक को अपने नियम पालन का अहंकार हो गया है। उन्होंने कहा, ‘मेरे बताए तेरहवें नियम व्रत का पालन शुरू कर दो । जीवन सफल हो जाएगा। वह है, विनयशीलता और विनम्रता।’
संत के शब्द सुनते ही फ्रेंकलिन के ज्ञान-चक्षु खुल गए। उन्हें लगा कि वास्तव में विनम्रता व संवेदनशीलता ही तो समस्त गुणों का शील प्राण है। उस दिन से फ्रेंकलिन ने तुच्छ भाव से अपने हृदय में झाँकना शुरू कर दिया।
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इस लोक में सदाचार – Story in Hindi with Moral PDF
आचार्य तुलसी के सत्संग के लिए दूर-दूर से लोग पहुँचा करते थे। एक बार किसी जिज्ञासु ने उनसे पूछ लिया, ‘परलोक सुधारने के लिए क्या उपाय किये जाने चाहिए?’ आचार्यश्री ने कहा, ‘पहले तुम्हारा वर्तमान जीवन कैसा है या तुम्हारा विचार व आचरण कैसा है, इस पर विचार करो ।
इस लोक में सदाचार का पालन नहीं करते, नैतिक मूल्यों पर नहीं चलते और मंत्र तंत्र या कर्मकांड से परलोक को कल्याणमय बना लेंगे, कुछ लोग यह भ्रांति पालते रहते हैं।’
आचार्य महाप्रज्ञ प्रवचन में कहा करते थे, ‘धर्म की पहली कसौटी है आचार, और आचार में भी नैतिकता का आचरण | ईमानदारी और सचाई जिसके जीवन में है, उसे दूसरी चिंता नहीं करनी चाहिए।’
एक बार उन्होंने सत्संग में कहा, ‘उपवास, आराधना, मंत्र जाप, धर्म चर्चा आदि धार्मिक क्रियाओं का तात्कालिक फल यह होना चाहिए कि व्यक्ति का जीवन पवित्र हो । वह कभी कोई अनैतिक कर्म न करे और सत्य पर अटल रहे।
अगर ऐसा होता है, तो हम मान सकते हैं कि धर्म का परिणाम उसके जीवन में आ रहा है। यह परिणाम सामने न आए, तो फिर सोचना पड़ता है कि औषधि ली जा रही है, पर रोग का शमन नहीं हो रहा । चिंता यह भी होने लगती है कि कहीं हम नकली औषधि का इस्तेमाल तो नहीं कर रहे । ‘
आज सबसे बड़ी विडंबना यह है कि आदमी लोक में सुख-सुविधाएँ जुटाने के लिए अनैतिकता का सहारा लेने में नहीं हिचकिचाता। वह धर्म के बाह्य साधनों कथा कीर्तन, यज्ञ, तीर्थयात्रा, मंदिर दर्शन आदि के माध्यम से परलोक के कल्याण का पुण्य अर्जित करने का ताना बाना बुनने में लगा रहता है।
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मोको कहाँ तू ढूँढ़े – Story in Hindi with Moral PDF
गणेशपुरी के विख्यात संत बाबा मुक्तानंद परमहंस सत्संग के लिए आए लोगों के साथ कुटिया में बैठे वेदांत और परमात्मा की चर्चा कर रहे थे। वहाँ उपस्थित एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया, ‘बाबा, क्या परमात्मा के दर्शन हो सकते हैं?’
बाबा ने कहा, ‘तुम हर क्षण परमात्मा के दर्शन करते हो, लेकिन ज्ञानचक्षु न होने के कारण उन्हें पहचान नहीं पाते।’ कुछ क्षण मौन रहकर उन्होंने फिर कहा, ‘यह जगत परमात्मा का ही प्रतिबिंब है।
वेदांत का कथन सर्वे खल्विदं ब्रह्म पूर्ण सत्य है। सर्व देश, सर्व तीर्थ, सर्वनाम परमात्मा के हैं। भूमंडल के सर्व स्थान प्रभु के क्षेत्र हैं। जगत के सभी आकार रूपों में परमात्मा का रूप छिपा है।
अनंत की महिमा अनंत, नाम अनंत, लीला अनंत, परमात्मा का कोई अंत नहीं है। किसी भी शास्त्र का अध्ययन कर लो, पूरा नहीं होगा। कितने ही तीर्थों की यात्रा कर लो, फिर भी अनेक तीर्थ बच जाएँगे।
कितनी दूर तक दृष्टि डालो, नजर असीमित ऊँचाई तक पहुँच ही नहीं सकती। ऐसी दिव्य व्यापकता, विशालता और दिव्य महिमा है। भगवत तत्त्व की । यह क्षणभंगुर शरीर कहीं दिव्य दृष्टि के अभाव में परमात्मा को बाहर खोजते खोजते समय गँवाकर प्राणहीन होकर दुर्लभ मानव जीवन को निष्फल न कर डाले। ‘
बाबा ने परमात्मा को पहचानने का उपाय बताते हुए कहा, ‘ध्यान के निरंतर अभ्यास, अंतर्मुखी बनने से प्रत्येक मानव में परमात्मा के दर्शन स्वतः होने लगेंगे। दिव्य आनंद की अनुभूति होने लगेगी। परमात्मा स्वयं कह उठेगा, ‘मोको कहाँ तू ढूंढ़े बंदे-मैं तो तोरे पास में । ‘
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ईश्वर को जान लिया – Story in Hindi with Moral PDF
राष्ट्र गौरव रवींद्रनाथ ठाकुर अपनी कविताओं में ईश्वर को जगन्नियंता मानकर उनकी स्तुति करते थे। ईश्वरनिष्ठा संबंधी अधिकांश कविताओं का गीतांजलि में संकलन किया गया। गीतांजलि प्रकाशित हुई, तो देश-विदेश में उसकी खूब प्रशंसा हुई।
श्री ठाकुर के एक पड़ोसी वृद्ध मित्र प्रायः उनके पास आकर उनसे साहित्य संबंधी चर्चा किया करते थे। एक दिन वे उनके घर पहुँचे और उनसे पूछा, ‘रवींद्र बाबा, आपने कविताओं में ईश्वर की प्रशंसा की है।
क्या वास्तव में आपने ईश्वर को जान लिया है?’ हालाँकि रवींद्रनाथ ने उस वक्त इस प्रश्न को टाल दिया, पर इस सवाल ने उनके हृदय को झकझोर दिया। वे इस प्रश्न का उत्तर ढूंढ़ने के चिंतन में लग गए।
श्रीठाकुर ने अपने संस्मरण में लिखा है, ‘वर्षा के दिन थे | आषाढ़ का महीना था। तालाब, पोखर, नदी जल से लबालब भरे थे। प्रातःकालीन सूर्य की किरणें समुद्र पर बिखरीं, तो प्रतिबिंब उभरे। ये प्रतिबिंब समुद्र, नदी, पोखर, तालाब सबमें समान रूप से दिखाई दे रहे थे।
सबमें सूरज झलकता था, पर सूरज न सागर के जल में खारा था, न पोखर के जल में गंदा । यह अनूठा दृश्य देखते ही मेरी समझ में आ गया कि वह सर्वशक्तिमान सत्ता पापी पुण्यात्मा, आकाश पाताल प्रत्येक जीव में समान रूप से विद्यमान है।
वह न तो कभी अशुद्ध होती है, न ही समाप्त। उस दिन के बाद उस वृद्ध पड़ोसी को देखकर मुझे भय नहीं लगा। उस जिज्ञासु की कृपा से ही मुझे परमात्मा को समझने का अवसर मिल गया, जो गीतों की रचना करते समय नहीं मिला था। ‘
मुक्ति के सोपान – Story in Hindi with Moral PDF
भागवताचार्य स्वामी अखंडानंद सरस्वती से एक जिज्ञासु ने प्रश्न किया, ‘मोक्ष किसे कहते हैं?’ स्वामीजी ने बताया कि नैयायिक मानते हैं कि दुःख-सुख की अनुभूति न होना ही मोक्ष है।
द्रष्टा का अपने स्वरूप में स्थिर हो जाना ही मोक्ष है। पूर्व मीमांसक लोग कहते हैं कि दुनियावी प्रपंच के साथ जो संबंध है, उसकी अनुभू बंद होना ही मोक्ष है। वेदांत का कहना है कि प्रपंच भी रहे और संबंध भी मालूम पड़ता रहे, परंतु उसका मूल्यांकन न रहे, इसलिए मोक्ष अपनी आत्मा का ही नाम है ।
भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं, ‘जो परमात्मा को छोड़कर सांसारिक विषय भोगों की ओर दौड़ते हैं, वे बार बार दुःख को प्राप्त होते हैं। मनुष्यों को स्त्री, पुत्र, आदि पदार्थों में सुख महसूस होता है, यह भ्रांति ही बंधन है।
जब तक साधक विषय-भोगों के मोह से मुक्त नहीं होता, तब तक उसे न आत्मिक ज्ञान प्राप्त सकता है और न उसमें भक्तिभाव उत्पन्न हो सकता है। आत्मिक ज्ञान ही मोक्ष प्राप्ति का साधन है। ‘
भगवान् दत्तात्रेय परम पद (मोक्ष) की प्राप्ति के सरल उपाय बताते हुए कहते हैं, ‘रागद्वेषविनिर्मुक्तः सर्वभूत हितै रतः। दृढ़बोधश्य धीरश्य स गच्छेत् परमं पदम् ॥ अर्थात् राग (आसक्ति ममत्व), द्वेष (ईर्ष्याभाव) से विमुक्त होना,
सभी प्राणियों के हित में रत रहना, ब्रह्मज्ञान का बोध होना तथा धैर्यवान होना परमपद – मुक्ति के सोपान हैं।’ स्वामी विवेकानंद के मुक्ति के विषय में अलग ही विचार हैं।
वे कहते हैं, ‘मानव जीवन बड़े भाग्य से मिलता है। सदाचार, भक्ति, सेवा, परोपकार में लगे रहकर इसे सफल बनाया जा सकता है। अहम से मुक्ति ही सच्चा मोक्ष है।’
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भाग्य का फल Story in Hindi with Moral PDF
किसी नगर में सागर दत्त नाम का एक वैश्य रहता था। उसके लड़के ने एक बार सौ रुपए में बिकने वाली एक पुस्तक खरीदी। उस पुस्तक में केवल एक श्लोक लिखा था—जो वस्तु जिसको मिलने वाली होती है,
वह उसे अवश्य मिलती है। उस वस्तु की प्राप्ति को विधाता भी नहीं रोक सकता। अतएव मैं किसी वस्तु के विनष्ट हो जाने पर न दुखी होता हूं और न किसी वस्तु के अनायास मिल जाने पर आश्चर्य ही करता हूं।
क्योंकि जो वस्तु दूसरों को मिलने वाली होगी, वह हमें नहीं मिल सकती और जो हमें मिलने वाली है, वह दूसरों को नहीं मिल सकती।
उस पुस्तक को देखकर सागर दत्त ने अपने पुत्र से पूछा- तुमने इस पुस्तक को कितने में खरीदा है?’ पुत्र ने उत्तर दिया-‘एक सौ रुपए में। अपने पुत्र से पुस्तक का मूल्य जानकर सागर दत्त कुपित हो गया।
वह क्रोध ते बोला-‘अरे मूर्ख! जब तुम लिखे हुए एक श्लोक को एक सौ रुपए में खरीदते हो तो तुम अपनी बुद्धि से क्या धन कमाओगे? तुम जैसे मूर्ख को मैं अब अपने घर में नहीं रखेगा। सागर दत्त का पुत्र अपमानित होकर घर से निकल पड़ा।
वह एक नगर में पहुंचा। लोग जब उसका नाम पूछते तो वह अपना नाम प्राप्तव्य-अर्थ’ ही बतलाता। इस प्रकार वह प्राप्तव्य अर्थ के नाम से पहचाना जाने लगा। कुछ दिनों बाद नगर एक उत्सव मनाया गया।
नगर की राजकुमारी चंद्रावती अपनी सहेली के साथ उत्सव की शोभा देखने निकली। इस प्रकार जब वह नगर का भ्रमण कर रही थी तो किसी देश का राजकुमार उसकी दृष्टि में जा गया।
वह उस पर मुग्ध हो गई और अपनी सहेली से बोली-‘सखि ! जिस प्रकार भी हो सके, इस राजकुमार से मेरा समागम कराने का प्रयास करो। राजकुमारी की सहेली तत्काल उस राजकुमार के पास पहुंची और उससे बोली-‘मुझे राजकुमारी चंद्रावती ने आपके पास भेजा है।
उनका कहना है कि आपको देखकर उनकी दशा बहुत शोचनीय हो गई है। आप तुरंत उनके पासन गए तो मरने के अतिरिक्त उनके लिए अन्य कोई मार्ग नहीं रह जाएगा। इस पर उस राजपुत्र ने कहा-यदि ऐसा है तो बताओ कि मैं उनके पास किस समय और किस प्रकार पहुंच सकता हूँ?
राजकुमारी की सहेली बोली-‘रात्रि के समय उसके शयनकक्ष में चमड़े की एक मजबूत रस्सी लटकी हुई मिलेगी, आप उस पर चढ़कर राजकुमारी के का में पहुंच जाना। इतना बताकर राजकुमारी की सहेली तो वापस लौट गई, और राजकुमार रात्रि के आ की प्रतीक्षा करने लगा।
किंतु रात हो जाने पर कुछ सोचकर उत राजपुत्र ने राजकुमारी के कक्ष में जाना एकाएक स्थगित कर दिया। संयोग की बात है कि वैश्य पुत्र प्राप्तव्य-अर्थ’ उघर से ही निकल रहा था उसने रस्सी लटकी देखी तो वह उस पर चढ़कर राजकुमारी के कक्ष में पहुंच गया। राज्पुत्री ने भी आपको राजकुमार समझ उसका खूब स्वागत-सत्कार किया,
उसको स्वादिष्ट भोजन खिलाया और अपनी शय्या पर उसे लिटाकर स्वयं भी लेट गई। वैश्यपुत्र के स्पर्श से रोमांचित होकर उस राजकुमारी ने कहा- मैं आपके दर्शनमात्र से ही अनुरक्त होकर आपको अपना हृदय दे बैठी हूँ। अब आपको छोड़कर किसी और को पति रूप में वरण नहीं करूंगी।’
वैश्यपुत्र कुछ नहीं बोला। वह शांत पड़ा रहा। इस पर राजकुमारी ने कहा-‘आप मुझसे बोल क्यों नहीं रहे हैं, क्या बात है ?’ तब वैश्य पुत्र बोला-‘मनुष्य प्राप्तक वस्तु को प्राप्त कर ही लेता है।’ यह सुनकर राजपुत्री को संदेह हो गया।
उसने तत्काल उसे अपने शयनकक्ष से बाहर भगा दिया। वैश्य पुत्र वहां से निकलकर एक जीर्ण-शीर्ण मंदिर में विश्राम करने चला गया। संयोग की बात है कि नगररक्षक अपनी प्रेमिका से मिलने उसी मंदिर में आया हुआ था।
उसे देखकर उसने पूछा-‘आप कौन हैं ?’ वैश्य पुत्र बोला—’मनुष्य अपने प्राप्तव्य अर्थ को ही प्राप्त करता है।’
नगररक्षक बोला—’यह तो निर्जन स्थान है। आप मेरे स्थान पर जाकर सो जाइए। वैश्य पुत्र ने उसकी बात को स्वीकार तो कर लिया; किंतु अर्द्धनिद्रित होने के कारण भूल से वह उस स्थान पर न जाकर किसी अन्य स्थान पर जा पहुंचा। उस नगररक्षक की कन्या विनयवती भी किसी पुरुष के प्रेम में फंसी हुई थी।
उसने उस स्थान पर आने का अपने प्रेमी को संकेत दिया हुआ था,जहां कि ‘प्राप्तव्य-अर्थ’ पहुंच गया था। विनयवती वहां सोई हुई थी। उसको आते देखकर विनयवती ने यही समझा कि उसका प्रेमी आ गया है। वह प्रसन्न होकर उसका स्वागत-सत्कार करने लगी। जब वह वैश्यपुत्र के साथ अपनी शैया पर सोई तो उसने पूछा-‘क्या बात है,
आप अब भी मुझसे निश्चिंत होकर बातचीत नहीं कर रहे हैं ?’ वैश्य पुत्र ने वही वाक्य दोहरा दिया—’मनुष्य अपने प्राप्तव्य-अर्थ को ही प्राप्त करता है। विनयवती समझ गई कि बिना विचारे करने का उसको यह फल मिल रहा है। उसने तुरंत उस वैश्यपुत्र को घर से बाहर जाने का रास्ता दिखा दिया। वैश्यपुत्र एक बार फिर सड़क पर आ गया।
तभी उसे सामने से आती एक बारात दिखाई दी। वरकीर्ति नामक वर बड़ी धूमधाम से अपनी बारात लेकर जा रहा था। वह भी उस बारात में शामिल होकर उनके साथ-साथ चलने लगा। बारात अपने स्थान पर पहुंची, उसका खूब स्वागत-सत्कार हुआ। विवाह का मुहूर्त होने पर सेठ की कन्या सज-धजकर विवाह-मंडप के समीप आई।
उसी क्षण एक मदमस्त हाथी ने महावत को मारकर भागता हुआ उधर आ पहुंचा। उसे देखकर भय के कारण सभी बाराती वर को लेकर वहां से भाग गए। कन्या-पक्ष के लोग भी घबराकर घरों में घुस गए। कन्या उस स्थान पर अकेली रह गई।
कन्या को भयभीत देखकर ‘प्राप्तव्य-अर्थ’ ने उसे सांत्वना दी-‘डरो मत। मैं ारा रक्षा करूंगा।’ यह कहकर उसने एक हाथ से उस कन्या को संभाला और दूसरे हाथ में एक डंडा लेकर हाथी पर पिल पड़ा।
डंडे की चोट से भयभीत होकर वह हाथी सहसा वहां से भाग निकला। हाथी के चले जाने पर और कीर्ति अपनी बारात के साथ वापस लौटा, किंतु तब तक विवाह का मुहूर्त निकल चुका था। उसने देखा कि उसकी वधू किसी अन्य नौजवान के साथ सटकर खड़ी हुई है और नौजवान ने उसका हाथ थामा हुआ है। यह देखकर उसे क्रोध आ गया और अपने ससुर से बोला—’आपने यह उचित नहीं किया। अपनी कन्या का हाय मेरे हाथ में देने के स्थान पर किसी अन्य के हाथ में दे दिया है।’
उसकी बात सुनकर सेठ बोला—’मुझे स्वयं भी नहीं मालूम कि यह घटना कैसे घटी। हाथी के डर से मैं भी तुम सब लोगों के साथ यहां से भाग गया था, अभी-अभी वापस लौटा हूं।’ सेठ की बेटी बोली-‘पिताजी। इन्होंने ही मुझे मृत्यु से बचाया है, अतः अब मैं इनको छोड़कर किसी अन्य के साथ विवाह नहीं करूंगी। इस प्रकार विवाद बढ़ गया, और रात्रि भी समाप्त हो गई।
प्रातःकाल वहां भीड़ इकट्टी हो गई। राजकुमारी भी वहां पहुंच गई थी। विनयवती ने सुना तो वह भी तमाशा देखने वहां जा पहुंची। स्वयं राजा भी इस विवाद की बात सुनकर वहां चला आया उसने वैश्यपुत्र से कहा-‘युवक ! तुम निश्चिंत होकर सारी घटना का विवरण मुझे सुनाओ।’ वैश्य पुत्र ने उत्तर में यही कहा—’मनुष्य प्राप्तव्य अर्थ को ही प्राप्त करता है।’
उसकी बात सुनकर राजपुत्री बोली-‘विधाता भी उसको नहीं रोक सकता। तब विनयवती कहने लगी-‘इसलिए मैं विगत बात पर पश्चात्ताप नहीं करती और मुझको उस पर कोई आश्चर्य नहीं होता।’ यह सुनकर विवाह मंडप में आई सेठ की कन्या बोली जो वस्तु मेरी है, वह दूसरों की नहीं हो सकती।’ राजा के लिए यह सब पहेली बन गया था।
उसने सब कन्याओं से पृथक-पृथक सारी बात सुनी। और जब वह आश्वस्त हो गया तो उसने सबको अभयदान दिया। उसने अपनी कन्या को सम्पूर्ण अलंकारों से युक्त करके, एक हजार ग्रामों के साथ अत्यंत आदरपूर्वक ‘प्राप्तव्य-अर्थ’ को समर्पित कर दिया। इतना ही नहीं उसने उसे अपना पुत्र भी मान लिया।
इस प्रकार उसने उस वैश्य पुत्र को युवराज पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। नगररक्षक ने भी उसी प्रकार अपनी कन्या विनयवती उस वैश्यपुत्र को सौंप दी। तीनों कन्याओं से विवाह कर वैश्य पुत्र आनंदपूर्वक राजमहल में रहने लगा बाद में उसने अपने समस्त परिवार को भी वहां बुला लिया।
यह कथा समाप्त कर हिरण्यक ने कहा-‘इसलिए मैं कहता हूं कि मनुष्य अपने प्राप्तव्य अर्थ को प्राप्त करता है। इस प्रकार अनुचरों से खिन्न होकर मैं आपके मित्र लघुपतनक के साय यहां चला आया हूं। यही मेरे वैराग्य का कारण है।
हिरण्यक की बात सुनकर मंथरक कछुए ने कहा—मित्र हिरण्यक ! तुम नष्ट हुए धन की चिंता मत करो। जवानी और धन का उपयोग तो क्षणिक ही होता है। पहले तो धन के अर्जन में ही कष्ट होता है और बाद में उसके संरक्षण में भी कष्ट होता है।
जितने कष्टों से मनुष्य धन का संचय करता है उसके शतांश कों से भी यदि वह धर्म का संचय करे तो उसे मोक्ष मिल जाता है। तुम विदेश-प्रवास का भी दुख मत करो, क्योंकि व्यवसायी के लिए कोई स्थान दूर नहीं होता और विद्वान व्यक्ति के लिए कोई स्थान परदेश नहीं होता। साथ ही किसी प्रियवादी व्यक्ति के लिए कोई व्यक्ति पराया नहीं होता।
तुम निर्भय होकर यहां रहो। हम तीनों अच्छे मित्रों की भांति मिलकर जीवन-निर्वाह करेंगे। रही धन जाने की बात, तो धन कमाना तो भाग्य पर निर्भर करता है। भाग्य में न हो तो संचित धन भी नष्ट हो जाता है। अभागा आदमी तो धन को संचित करके भी उसका उपभोग उसी तरह नहीं कर पाता, जिस तरह सोमिलक नहीं कर पाया था।
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