Moral Stories in the Hindi Language:- Here I’m sharing with you the top 04 Moral Stories in the Hindi Language which is really amazing and awesome these Moral Stories in the Hindi Language will teach you lots of things and gives you an awesome experience. You can share with your friends and family and these moral stories will be very useful for your children or younger siblings.
यहाँ मैं आपके साथ हिंदी भाषा की टॉप 04 Moral Stories शेयर कर रहा हूँ जो वास्तव में अद्भुत हैं और ये Moral Stories in Hindi Language आपको बहुत सारी बातें सिखाएंगे और आपको एक शानदार अनुभव प्रदान करेंगे। आप अपने दोस्तों और परिवार के साथ साझा कर सकते हैं और ये नैतिक कहानियाँ आपके बच्चों या छोटे भाई-बहनों के लिए बहुत उपयोगी होंगी।
Moral Stories in the Hindi Language for Kids
मूर्ख मित्र
चोर ब्राह्मण का कार्य
संन्यासी और चूहा
कार्य का कारण
01. मूर्ख मित्र Small Stories in the Hindi Language with Moral
एक राजा के राजभवन में एक बंदर रहता था। वह वहां के सब लोगों का सेवक और अंतःपुर (राजमहल) में सबका विश्वासपात्र बना हुआ था। एक बार राजा सो रहा था। बंदर राजा के पास बैठा पंखा झल रहा था।
थोडी देर में एक मक्खी राजा की छाती पर आ बैठी। बंदर ने मक्खी को उड़ा दिया। लेकिन मक्खी फिर उड़कर राजा की छाती पर आ बैठी।
इस तरह बंदर बार-बार मक्खी को उड़ाता और मक्खी बार-बार उड़कर पुनः राजा की छाती पर बैठती थी। यह देखकर बंदर को बहुत क्रोध आया। वह अपनी मूर्खता और स्वाभाविक चंचलता वश एक तेज तलवार उठा लाया।
जैसे ही मक्खी बैठी, बंदर ने तलवार चला दी। मक्खी तो उड़ गई, लेकिन तलवार की धार से राजा की छाती के दो टुकड़े हो गए।
यह कथा सुनाकर करटक ने कहा-‘इसलिए कहते हैं कि अधिक दिन जीने की इच्छा रखने वाले राजा को मूर्ख सेवक नहीं रखना चाहिए। इस विषय में एक दूसरी कथा भी सुनो, जो इस प्रकार है।
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02. चोर ब्राह्मण का कार्य Moral Stories in the Hindi Language for Children
किसी नगर में एक ब्राह्मण रहता था। वह बड़ा प्रकांड विद्वान था। पूर्व जन्म के संस्कारों से वह चोरी किया करता था। एक बार उसने अपने ही नगर में बाहर से आए हुए चार ब्राह्मणों को देखा।
चोर ब्राह्मण ने सोचा कि वह ऐसा कौन-सा उपाय करे जिससे उन चारों की संपत्ति उसके पास आ जाए। कुछ विचार कर वह उनके समीप गया और उन पर पांडित्य की छाप जमाने लगा अपनी मीठी वाणी से उसने अपने प्रति उनका विश्वास उत्पन्न कर लिया और इस प्रकार वह उनकी सेवा करने लगा।
किसी ने ठीक ही कहा है कि कुलटा स्त्री ही अधिक लज्जा करती है, खारा जल अधिक ठंडा होता है, पाखंडी व्यक्ति अधिक विवेकी होता है और धूर्त व्यक्ति दी अधिक प्रिय बोलता है।
एक दिन ब्राह्मणों ने जब अपना सारा सामान बेच दिया तो उससे प्राप्त धन से उन्होंने रल आदि खरीद लिए तब उन्होंने अपने देश को प्रस्थान करने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी जंघाओं में उन रलों को छिपा लिया।
यह देख चोर ब्राह्मण को इतने दिनों तक उनकी सेवा में रहकर अपनी असफलता पर खेद होने लगा। तब उसने निश्चय किया कि वह भी उनके साथ जाएगा और मार्ग में सबको विष देकर उनकी संपत्ति हथिया लेगा।
चोर ब्राह्मण ने जब रो-धोकर उसे अपने साथ ले चलने का आग्रह किया तो उन ब्राह्मणों ने उसे साथ ले जाना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार जब वे जा रहे थे तो मार्ग में भीलों का एक गांव आया।
उस गांव के कौए ऐसे प्रशिक्षित थे, जो अजनबी व्यक्ति के पास धन होने का संकेत दे देते थे। उन्होंने संकेत दिया तो भीलों को संदेह हो गया कि उनके पास संपत्ति है।
भीलों ने उनको घेरकर उनसे धन छीनना चाहा, किंतु जब ब्राह्मणों ने देने से इंकार किया तो भीलों ने उनकी खूब पिटाई की। पीटकर उनके वस्त्र उतरवाए गए, किंतु उनको धन कहीं भी नहीं मिला।
यह देखकर उन भीलों ने कहा-‘हमारे गांव के कौओं ने आज तक जो भी संकेत दिए हैं, वे कभी असत्य सिद्ध नहीं हुए। अब यदि तुम्हारे पास धन है तो हमें दे दो, अन्यथा तुम्हें मारकर हम तुम्हारा अंग-अंग चीरकर उसमें रखे धन को ले लेंगे।
चोर ब्राह्मण ने भीलों के मुख से जब यह बात सुनी कि उनको मारा जाएगा तो वह समझ गया कि अन्त में उसकी भी वारी आएगी ही अतः किसी प्रकार अपने प्राण देकर इनके प्राण बचाए जा सकें तो क्या हानि है ?
यही विचार करके उसने भीलों से कहा-‘भीलो। यदि तुम्हारा यही निश्चय है तो पहले मुझे मारकर अपने कौओं के संकेतों का परीक्षण कर लो।’ भीलों ने उस धूर्त ब्राह्मण को मार डाला।
जब उनको उस ब्राह्मण के शरीर में छिपा हुआ धन नहीं मिला तो उन्होंने सोचा कि बाकी चारों ब्राह्मणों के पास भी कुछ नहीं होगा कथा सुनाकर करटक ने आगे कहा-‘इसलिए मैं कहता हूं कि मूर्ख मित्र से विद्वान शत्रु अधिक अच्छा रहता है।’
यह सोचकर भीलों ने उन चारों ब्राह्मणों को छोड़ दिया। यह वे दोनों इधर इसी प्रकार की बातें कर रहे थे और उधर पिंगलक और संजीवक में निर्णायक युद्ध चल रहा था।
अन्त में पिंगलक ने अपने नख-दंत प्रहार से संजीवक को मार ही डाला। संजीवक को मारने के बाद पिंगलक को उसके गुण याद आने लगे। उसे पश्चात्ताप होने लगा वह बोला-‘संजीवक का वध करके मैने बहुत बड़ा पाप किया है,
क्योंकि विश्वासघात से बढ़कर कोई दूसरा पाप नहीं होता। मैं पहले अपनी सभा में सभी से उसकी प्रशंसा किया करता था, अब मैं अपनी सभा में क्या कहा करूंगा ?’
पिंगलक के मुख से दुखपूर्ण बातें सुनकर दमनक उसके पास पहुंचा और बोला-‘स्वामी ! घास खाने वाले बैल का वध करने के बाद आप शोक क्यों मना रहे हैं ? यह नीति तो कायरतापूर्ण है किसी राजा को ऐसी नीति शोभा नहीं देती।
भगवान कृष्ण ने भी गीता में कहा है कि ‘हे अर्जुन, जिनके विषय में तुझे सोच नहीं करना चाहिए, उनके विषय में सोचकर तू शोकाकुल क्यों हो रहा है?
व्यक्ति को जीवन के तत्त्व को समझकर उसके अनुकूल ही आचरण करना चाहिए। विद्वान व्यक्ति किसी के जीने अथवा मरने का शोक अथवा हर्ष नहीं किया करते।’
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03. संन्यासी और चूहा Moral Stories in the Hindi Language
दक्षिण दिशा के एक प्रान्त में महिलारोप्य नामक नगर से थोड़ी दूर भगवान शिव का एक मंदिर था। वहां ताम्रचूड़ नाम का एक संन्यासी रहता था।
वह नगर से भिक्षा मांगकर भोजन करता था और बची हुई भिक्षा को भिक्षा-पात्र में रखकर खूटी पर टांग देता था। सुबह उसी बची हुई भिक्षा से थोड़ा-थोड़ा अन्न वह अपने सेवकों को बांट देता था।
और उन सेवकों से मंदिर की सफाई आदि का कार्य कराता था। एक दिन उस मंदिर के चूहों ने आकर मुझसे कहा—’हे स्वामी ! इस मंदिर का संन्यासी बहुत अन्न बचाकर अपने भिक्षा-पात्र में खूंटी पर लटका देता है।
इधर-उधर घूमने से क्या फायदा ? आप इस भिक्षा-पात्र पर चढ़कर उस अन्न का आनंद उठाइए।’ मैं खूंटी पर चढ़कर भिक्षा-पात्र का अन्न खाने लगा जब संन्यासी को पता चला तो रात को वह एक बांस अपने पास रखकर लेट गया।
वह बार-बार उस बांस से भिक्षा-पात्र को हिला देता था। मैं उस पात्र में ही एक ओर छिप जाता या। इस तरह वह रात-भर बांस से पात्र को ठोंकता रहता था, और मैं छिपा रहता था।
कुछ दिन बाद ताम्रचूड़ संन्यासी का एक मित्र तीर्थयात्रा से लौटकर उसके घर आया। उसका नाम था, बृहत्सिफक्। ताम्रचूड़ रात को मुझे भगाने में लगा रहता। मित्र से अधिक ध्यान देकर वह बात नहीं कर पाता था।
इससे उसका मित्र कुद्ध हो गया और बोला-‘ताम्रचूड़! तू मेरे साथ मैत्री नहीं निभा रहा। मुझसे पूरे मन से बात नहीं करता। मैं इसी समय तेरा मंदिर छोड़कर दूसरी जगह रहने के लिए चला जाता हूं।’
ताम्रचूड़ ने डरते हुए उत्तर दिया-‘मित्र ! तू मेरा अनन्य मित्र है। मेरी व्यग्रता का कारण दूसरा है, वह यह कि एक दुष्ट चूहा रोज रात को खूटी पर टंगे मेरे भिक्षा-पात्र से भोज्य-पदार्थों को चुराकर खा जाता है।
चूहे को डराने के लिए ही मैं भिक्षा-पात्र को खटका रहा हूं। उस चूहे ने उछलने में तो बिल्ली और बंदर को भी मात कर दिया है।’ कारण जानकर बृहत्सिफक् ने कुछ नम्र स्वर में पूछा-‘तुम्हें उस चूहे के बिल का पता है?’ ‘नहीं।
मैं नहीं जानता ।’ ताम्रचूड़ ने उत्तर दिया। इस पर बृहत् सिफ बोला-‘हो न हो, उसका बिल भूमि में गड़े किसी खजाने के ऊपर है।
धन की गर्मी के कारण ही वह इतना उछलता है। कोई भी काम अकारण नहीं होता। कटे हुए तिलों को कोई यदि बिना कूटे तिलों के भाव बेचने लगे तो भी उसका कारण होता है।’
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04. कार्य का कारण Short Stories in the Hindi Language with Moral
एक बार की बात है कि वर्षाकाल आरंभ होने पर अपना चातुर्मास्य करने के उद्देश्य से मैंने ग्राम के ब्राह्मण से स्थान देने को आग्रह किया था। उसने मेरी प्रार्थना स्वीकार कर ली और मुझे स्थान दे दिया।
मैं उस स्थान पर रहता हुआ अपनी व्रत उपासना करता रहा। एक दिन प्रातः उठने पर मुझे लगा कि ब्राह्मण और ब्राह्मणी का किसी बात पर वाद-विवाद हो रहा है। मैं उनके वाद-विवाद को ध्यानपूर्वक सुनने लगा।
ब्राह्मण अपनी पली से कह रहा था-आज सूर्योदय के समय कर्क संक्रांति आरंभ होने वाली है। यह बड़ी फलदायक होती है। मैं तो दान लेने के लिए दूसरे ग्राम चला जाऊंगा,
तुम भगवान सूर्य को दान देने के उद्देश्य से किसी ब्राह्मण को बुलाकर उसको भोजन करा देना।’ उसकी पली बड़े कठोर शब्दों में उसको धिक्कारती हुई कहने लगी—’तुम जैसे दरिद्र व्यक्ति के यहां भोजन मिलेगा ही कहां से?
इस प्रकार की बातें करते हुए तुम्हें लज्जा नहीं आती? इस घर में आने के बाद आज तक मैंने कभी कोई सुख नहीं पाया। न कभी मैंने यहां कोई मिठान खाया, न कोई आभूषण ही पहना।’
अब इस समय ऐसी बातें करने से क्या लाभ ?’ ब्राह्मण बोला-‘कहा भी गया है कि अपने ग्रास में से आधा ही सही, कितु याचक को देना अवश्य चाहिए।
अपनी इच्छा के अनुरूप ऐश्वर्य कब किसके पास होता है, वह कभी होगा भी नहीं। अतः जितना भी हो सके, दान करते रहना चाहिए।
विद्वानों ने यह भी कहा है कि मनुष्य को अधिक लोभ नहीं करना चाहिए। लोभ को सर्वथा त्याग भी नहीं देना चाहिए। अधिक लोभ करने वाले व्यक्ति के मस्तक में शिखा निकल आती है।
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