Hindi short Kahani 2022 हिंदी में
स्वजाति-प्रेम Hindi short Kahani for children
गंगा नदी के तट पर ऋषि-मुनियों का एक बहुत बड़ा आश्रम था। उस आश्रम के कुलपति ये, महर्षि याज्ञवल्क्य । एक बार जब महर्षि गंगा में स्नान कर वापस लौट रहे थे तो उनके हाथ पर किसी बाज के पंजे से एूटी हुई एक छोटी-सी चुहिया आ गिरी। महर्षि को उस पर दया आ गई महर्षि ने अपने तपोबल के प्रताप से उसे एक कन्या बना दिया और अपने आश्रम ले गए।
वहां जाकर उन्होंने अपनी संतानविहीन पानी से कहा-‘भद्रे ! इस कन्या को ले जाओ और इसे अपनी ही कन्या मानकर इसका पालन-पोषण करो।’ महर्षि की पली ने उस कन्या का लालन-पालन उसे अपनी पुत्री मानकर ही किया। जब उस कन्या की अवस्था विवाह योग्य हो गई महर्षि की पत्नी ने कहा-‘आर्य ! हमारी कन्या विवाह के योग्य हो गई है अब इसके विवाह का प्रबंध कर देना चाहिए। यह सुनकर महर्षि ने भी सहमति व्यक्त की और कहा-‘तुमने ठीक कहा भद्रे। ‘रजोदर्शन से पूर्व कन्या को ‘गौरी’ कहा गया है रजोदर्शन के बाद वह ‘रोहिणी’ हो जाती है। जब तक उसके शरीर में रोएं नहीं आ जाते तब तक वह कन्या कहलाती है, और स्तन रहित होने तक ‘नग्निका’ कही जाती है। यदि कन्या अपने पिता के घर ‘ऋतुमती’ हो जाती है तो पिता के पुण्य नष्ट हो जाते हैं। अतः कन्या के ‘ऋतुमती’ होने से पूर्व ही उसका विवाह कर देना चाहिए। अतः मैं शीघ्र ही इसके विवाह का प्रबंध करता हूं।’ तब महर्षि ने अपने तपोवन के प्रताप से भगवान भुवन भास्कर (सूर्य) का आह्वान किया और अपनी कन्या को बुलाकर पूछा-‘पुत्री ! यदि तुम्हें संसार को प्रकाश देने वाला आदित्य (सूर्य का एक नाम) पति रूप में स्वीकार हो तो मैं तुम्हारा विवाह इनके साथ कर दूं?’ पुत्री बोली’नहीं तात। इनमें तो बहुत ताप है। स्वीकार नहीं। इनसे अच्छा कोई अन्य वर चुनिए ।’ महर्षि ने सूर्यदेव से पूछा कि वे कोई अपने से अच्छा वर बताएं तो सूर्यदेव ने कहा-‘मुनिवर ! मुझसे श्रेष्ठ मेघ हैं जो मुझे ढककर छिपा देते हैं।’ मुझे
पति के रूप में यह
महर्षि ने तब मेघदेव का आह्वान किया और कन्या को बुलाकर इसकी इच्छा जाननी चाही तो वह बोली-‘नहीं तात। मुझे यह भी स्वीकार नहीं। यह बहुत काला है। कोई इससे भी अच्छा वर चुनिए। मुनि ने मेघ से भी पूछा कि उससे अच्छा कौन है तो मेघ ने कहा-‘मुनिश्रेष्ठ। मुझसे श्रेष्ठ तो पवन है। वह जब चाहें, हमें किसी भी दिशा में उड़ाकर ले जाते
इस पर ऋषि ने पवन देव को बुलाया तो ऋषि पुत्री कहने लगी-‘नहीं तात। मैं इससे भी विवाह नहीं कर सकती। यह तो बहुत चंचल हैं। मुनि ने पवन से भी पूछा कि तुमसे श्रेष्ठ कोई अन्य वर मेरी कन्या के लिए हो तो उसका नाम बताओ। पवन ने तब पर्वत का नाम लिया और कहा-‘पर्वत मुझसे अधिक बलवान है। वह जब चाहे मेरी शक्ति को कमजोर कर देता है। उसके अस्तित्व के आगे मेरी कोई शक्ति काम नहीं करती।
ऋषि ने पर्वतराज को भी बुलाया, किंतु ऋषि पुत्री ने यह कहकर उसे अस्वीकार कर दिया कि यह तो बहुत कठोर और गंभीर है। तब पर्वतराज ने महर्षि के पूछने पर अपने से श्रेष्ठ व्यक्ति का नाम बताया। पर्वतराज ने कहा-‘देव ! चूहा मुझसे भी ज्यादा शक्तिशाली है। वह मेरे कठोर पाषाणों में भी छेद कर डालता है। वह तो मुझे जड़ से इतना खोखला कर देता है कि मेरा अस्तित्व ही ढह जाता है।’ मुनि ने तब मूषकराज को बुलाया और अपनी कन्या से उसके विषय में विचार करने को कहा तो ऋषि कन्या पहली ही दृष्टि में उस पर मोहित हो गई और बोली-‘तात ! यही मेरे लिए उपयुक्त वर हैं। मुझे मूषक बनाकर इनके हाथों में सौंप दीजिए। मुनि ने अपने तपोबल से फिर उसे चुहिया बना दिया और मूषक के साथ उसका विवाह कर दिया। यह कहानी सुनाकर रक्ताक्ष ने स्थिरजीवी से कहा-‘इसलिए कहता हूं कि जातिप्रेम सहज ही नहीं छूटता। तुम मरकर उल्लू योनि में जन्म लेना चाहते हो, तब भी तुम्हारा जातिप्रेम थोड़े ही छूटेगा ! तुम तो उल्लू योनि पाकर भी उलूकों का अहित और अपनी जाति का हित ही करोगे।’ रक्ताक्ष के अनेक ठोस तर्क भी अरिमर्दन को प्रभावित न कर सके। वह स्थिरजीवी को अपने दुर्ग में ले गया और स्थिरजीवी की इच्छानुसार ही दुर्ग के मुख्य द्वार पर उसके रहने का प्रबंध कर दिया। स्थिरजीवी की पर्याप्त सेवा की गई, परिणामस्वरूप वह कुछ दिन में ही हृष्ट-पुष्ट हो गया। रक्ताक्ष यह देखकर बहुत दुखी हुआ। एक दिन उसने उल्लूराज अरिमर्दन से कहा-‘महाराज !’ मुझे तो आपके ये सभी मंत्री मूर्ख लगते हैं। जान पड़ता है यह सारा समूह ही मूर्खो का है। इसलिए मैंने यह स्थान छोड़कर जाने का निर्णय कर लिया है। लेकिन मैं फिर कहता हूं कि आप अपने निर्णय पर एक दिन पश्चात्ताप करेंगे। यह चालाक कौआ निश्चय ही एक दिन आपको विनष्ट कर देगा।’ यह कहकर रक्ताक्ष ने उसी समय अपने परिजनों और अपने जैसी विचारधारा वाले उल्लुओं को एकत्रित किया और किसी अन्यत्र स्थान को चला गया। स्थिरजीवी को जब रक्ताक्ष के जाने की सूचना मिली तो वह बहुत प्रसन्न हुआ। उसने सोचा कि यह अच्छा ही हुआ कि रक्ताक्ष यहां से चला गया। रक्ताक्ष बहुत दूरदर्शी और नीति-शास्त्र का अच्छा ज्ञान था। वह रहता तो मेरे कामों में निश्चित ही आएगा पैदा करता। अब इन अन्य मंत्रियों को मूर्ख बनाना कोई कठिन काम नहीं है।
स्थिरजीवी ने तब उल्लुओं की गुफा को जलाने का निश्चय कर लिया। उस दिन से वह छोटी-छोटी लड़कियां चुनकर पर्वत की गुफा के चारों ओर रखने लगा। जब पर्याप्त लकड़ियां वहां जमा हो गई तो सूर्य के प्रकाश में उल्लूओं के अधे हो
जाने के बाद एक दिन वह अपने राजा मेघवर्ण के पास पहुंचा और बोला-राजन!
मैंने शत्रु को जलाकर भस्म कर देने की पूरी योजना तैयार कर ली है। तुम भी अपने अनुचरों सहित अपनी-अपनी चोंचों में एक-एक जलती लकड़ी लेकर उल्लुराज के दुर्ग के चारों ओर फैला दो। शत्रु का दुर्ग जलकर राख हो जाएगा। अपने ही घर में सारे उल्लू जलकर नष्ट हो जाएंगे। उसकी बात सुनकर मेघवर्ण उसका कुशलक्षेम पूछने लगा क्योंकि वह उस दिन के पश्चात आज ही उससे मिला था। किंतु स्थिरजीवी ने उसे रोकते हुए कहा-राजन ! यह समय कुशलक्षेम पूछने का नहीं है। यदि उत्तुओं के किसी गुप्तचर ने मुझे यहां देख लिया तो वह तुरंत इसकी सूचना अरिमर्दन को पहुंचा देगा। अतः अब आप क्षणमात्र भी विलम्ब न कीजिए। शत्रु की गुफा को जलाकर जब आप लौट आएंगे, उसके बाद में विस्तार से आपको अपना समाचार सुनाऊंगा।’ स्थिरजीवी की बात को मानकर मेघवर्ण ने वैसा ही किया। जलती हुई लकड़ी उल्लुओं के घोंसले पर पड़ते ही उसमें आग धधक उठी। देखते-ही-देखते आग गुफा के मुख के चारों ओर फैल गई। गुफा में धुआं भरने लगा। उल्लू बाहर की ओर निकलने को भागे, किंतु आग गुफा के अंदर तक पहुंच गई। समूचे उल्लुओं का सर्वनाश हो गया। अपने शत्रुओं का सर्वनाश करके मेघवर्ण फिर उसी वृक्ष पर आ गया। उसने कौओं की एक सभा आयोजित की और स्थिरजीवी से बोला-‘तात! इतने दिन शत्रुओं के बीच रहकर आप किस प्रकार अपनी सुरक्षा कर सके? कृपया हमारी जिज्ञासा शांत कीजिए। स्थिरजीवी ने उत्तर दिया-‘भद्र ! भविष्य में मिलने वाले फल की आशा से ही सेवकजन वर्तमान के कष्ट भूल जाया करते हैं। शत्रु के बीच रहना तलवार की घार पर चलने के समान अवश्य है, किंतु उल्लुओं जैसा मूर्ख समाज भी मैंने दूसरा नहीं देखा। उनका मंत्री रक्ताक्ष बहुत योग्य या, किंतु उसके परामर्श को किसी ने नहीं माना। मैंने अपने दिन बहुत कठिनाई में बिताए हैं, किंतु स्वार्य सिद्ध करने के लिए तो सभी कुछ करना पड़ता है। ऐसा अवसर आने पर बुद्धिमान व्यक्ति तो शत्रु को भी अपने कंधे पर बैठा लिया करते हैं,